ट्रेन की वो खिड़की

ये ट्रेन ना जाने कितने सपनों और कितने अपनो को लिए जाता हैं अपने साथ और हमसे दूर…लेकिन कभी कुछ खास भी ला कर दे जाता है जैसे कोई याद कोई स्वाद या कोई इंसान…और सीटियां बजाते हुए निकलता है जैसे कह रहा हो कि ” सुनो बरखुरदार मेरा काम जुदा करना नहीं मिलाना भी होता है….”

अगस्त का महीना था। हल्की – फुल्की सी बारिश और तड़के सुबह का वक्त जब हम निकले अपनी मंजिल की ओर…पहला पड़ाव नज़ाकत और नफासत का शहर लखनऊ था….वहां तक का सफर ठीक ही रहा क्योंकि बगल में ऐसा परिवार बैठा था जिसको पूरे सफ़र में लगेज में से खाने का सामान ही निकालते रहना था.. शायद उन्हें लंबा सफ़र करना था लेकिन उस एक मात्र 8 लोगों के परिवार ने पूरी बोगी अस्त व्यस्त कर रखी थी। मेरा सफ़र अंग्रेज़ी का सफर बनता जा रहा था तभी खिड़की से देखा हम पहुंच ही गए थे लखनऊ..कानपुर से लखनऊ की दूरी ये 🚆 खत्म ही कर देती है।

पुलिसकर्मी वर्ग अक्सर यात्रा में वर्दी धारण करते है और मेरे पापा भी अपवाद थोड़े हैं। वजह साफ होती है कि भले वर्दी गंदी पड़ जाएं मगर टीटी को फूटी कौड़ी नहीं देनी हैं टिकट के नाम पर….

हम चारबाग रेलवे स्टेशन पर पहुंचे..ये खुशबू मेरे शहर की … उफ़ इसे ही तो भूल नहीं पाती मै..लेकिन कुछ ही देर में वो खाना भकोसता परिवार याद आया और मुझे बाथरूम जाने की जरूरत महसूस हुई।

पापा वॉशरूम जाना है..” मैंने कहा।

“हमारी ट्रेन आने वाली हैं रुक जा ट्रेन में चली जाना….!” पापा where is my train app देखते हुए बोलें।

“ठीक”….ये कहते हुए इंतजार की घड़ियां गिनने लगी बिना इस आभास के कि वो ट्रेन जीवन भर याद रहने वाली हैं…तभी ट्रेन की सीटी की आवाज़ कानों में पड़ी…हम उधर मुड़ चले।

“चलो …चलो” पापा ने कहा और हम झटपट ट्रेन में चढ़ गए। पापा ने मुझे वॉशरूम दिखाया और मै अंदर चली गई। ट्रेन का टॉयलेट .. हे राम! जितनी देर वहां रही सांस लेने की हिम्मत न जुटा सकी। मै बाहर आई मैंने पाया वहां पापा के साथ एक और शख्स खड़ा था। पापा से कम उम्र या यूं कहूं बहुत कम उम्र…पापा वर्दी में थे और वो भी.. मेरे निकलते ही उसने पापा से कहा “आइए यहां बैठिए.”…. जैसे मेरा ही इंतजार हो।

लेकिन रुको इन पुलिस वालों में कब से इतना प्यार उमड़ने लगा कि सीट दी जा रही है एक दूजे को..कुछ झोल है..तभी मेरा दिमाग राहुल गांधी से सीधा चाचा चौधरी का दिमाग बन गया “ओ.. हो …नए नए भर्ती हुए मालूम पड़ते हैं साहब टीटी से बचने का हुनर ना होगा अभी.. तभी सीनियर आदमी ढूंढ लिया हम्ममम…

फिर पापा उनके पीछे मै पापा के पीछे चल पड़ी। पापा बैग रखने लगे उस शख्स ने झट से पापा के बगल खिड़की वाली सीट कब्जा ली और मै देखती रह गई..” मै कहां बैठूं?” सोचती हुई उस शख्स के सामने वाली खाली सीट पर मजबूरन जा बैठी। खिड़की के बगल की सीट मिलने की खुशी थी लेकिन अनजान शख्स के सामने बैठने की बेचैनी भी वो भी तब जबकी पापा साथ हो…

ट्रेन अब भी खड़ी थी लोग आ रहे जा रहे स्टेशन का शोर शराबा था… सब सैटल करने के बाद मैं बर्थ पर पलथी मार के बैठ गई.. चूंकि लखनऊ तक भी ट्रेन से ही आई थी और उपर्युक्त बता चुकी हूं एक परिवार भी था जिसकी वजह से सफ़र का सारा इंट्रेस्ट खत्म हो चुका था…तभी मेरी नज़र उस शख्स की ओर गई। एक नजर तो वो मेरे पापा की ही परछाई लगा। दोनों ही वर्दी में एक पैर के ऊपर पैर रखें और एक हाथ सीट के पीछे.. बिल्कुल पापा जैसे… लेकिन एक फर्क था- स्टार का…पापा की वर्दी में एक स्टार था जबकि वो शख्स दो- दो स्टार से चमक रहा था।

चलो सफर कटने का इंतजाम हो गया… मैंने जूतों से ताड़ना शुरू किया …फिर बेल्ट और फिर नेम प्लेट….लेकिन क्या…. नाम पढ़ने के बाद मैंने उसे घूरा और नाम से शक्ल की का कोई मैच ही नही…ये कैसा नाम हैं और क्यों हैं रोहित..रवि सा दिखने वाला शख्स दुर्गेश…लेकिन क्यों? मै मन दौड़ाती रही इधर ट्रेन दौड़ पड़ी।

ट्रेन ने रफ्तार पकड़ ली। तभी उसने बातचीत शुरू की और मेरे कान खड़े हो गए…पापा को देखते हुए पूछा “कौन सा विभाग अंकल?” पापा सफ़र में सिर्फ सोना पसंद करते है लेकिन साथ में बेटी है तो पूरी मुस्तैदी थी। थोड़ा अकड़ के जवाब दिया ‘घुड़ सवार ‘….इतना सुनते ही वो पूरी तरह पापा की ओर मुड़ गया….आंखो में चमक तैर गई…”मेरे पिताजी भी थे घुड़ सवार पुलिस में 2018 में ड्यूटी के दौरान चल बसे।” ..अब पापा को मजा आने लगा वो भी दिलचस्पी लेने लगे। “अच्छा नाम क्या था”….नाम सुनने के बाद तो पिताजी के चेहरे का भाव ही बदल गया। ” हां ..हां मित्र थे हमारे …हम आए थे उनके तेरहवीं में ..बड़ा पीते थे वो है ना…तुम छोटे वाले हो ना? पापा ने नाम बताया अपना।”

“जी जी पहचाना… प्रयागराज में थे आप सब साथ.. मम्मी बहुत याद करती हैं…” वो बोला। मै सामने बैठी दोनों के होठ पढ़ने की कोशिश कर रही थी क्योंकि बात कुछ साफ सुनने में तो आ नहीं रही थी। लेकिन मै इतना समझ गई कि यहां रिश्तेदारी निकल आईं हैं। मैंने ऊपर से नीचे खुद के बैठने के लहजे को देखा फिर सोचा छोड़ो कौन सा मेरे ससुराल के हैं..और मोबाइल देखने लगी। बात करते-करते उन्होंने मुझे देखा। तभी पापा ने छोटा सा इंट्रो देकर टरका दिया। “छोटी वाली लड़की हैं पेपर दिलाने ले जा रहे”..और दूसरी बातों में लग गए। मुझे दुख हुआ कम से कम पढ़ाई वधाई भी बताते तो इज्जत वाली फीलिंग आती.. लड़की हैं ये क्या होता हैं.. खैर फिर उनकी बातों के सिलसिले यूं चले कि रुकने का नाम नहीं ले रहे थे। पापा सुन रहे वो बोल रहें।

“कितना बोलते है…कितना बोलते हैं एक बार भी चुप ही नहीं हो रहे ये तो ” मै मन में “उससे” से सीधा “उन्हें” जैसे सम्मान सूचक शब्द तक पहुंच गई थी। ये परिवर्तन कब हुआ पता ही नहीं चला। लेकिन देख बराबर उन्हीं को रही थी इस वक्त मेरा bff group साथ होता तो बोल देता बस कर आंखो में ही ब्याह रचा लेगी क्या…. मै देख जरूर रही थी मगर मै देख रही हूं ये सिर्फ मै जानती थी क्योंकि उन्हें देखूं या खिड़की किसी को कुछ नहीं पता चलने वाला था… मै बिंदास देख रही थी।

एक तस्वीर ले लूं मोबाइल उठाया तो बगल बैठा मोबाइल में झांकता शख्स दिखा और मैने मोबाइल रख दिया। फिर इधर उधर करती हुई उन्हें एक नजर देखती। जब वो देखते तो खिड़की के बाहर कुछ ढूंढने लगती। उनके पैर मेरे बर्थ के नीचे तक जा रहे थे। मैने पैर नीचे किए तो उनके जूतों में जा लगा। मैंने झटके से ऊपर देखा पापा ने तो नहीं देखा ..? ये क्या सोच रहे होंगे..? लेकिन दोनों अपने में मशगूल थे। उफ्फ..बचे..मैने जूती उतार दी और फिर पहले की तरह पलथी मार के बैठ गई। मैने नीचे देखा मेरी जूती उनके जूते के सामने बच्चे लग रहे थे मैने उन्हें बर्थ के अंदर छुपा दिया ताकि उन्हें न दिखे। मै ना जाने क्या छुपाने की कोशिश कर रही थी और क्यों उस दौरान कुछ पता ही नहीं था…

मैं उन्हें देख महसूस नहीं कर पा रही थी कि मै आज से पहले इनसे कभी नहीं मिली .. परायों सा क्यों नहीं लगा समझ नहीं आया। पापा उठ के वॉशरूम चले गए। कुछ अजीब लगा लेकिन पापा के बगैर जो डर लगता है वो डर नहीं लगा। उन्होंने इस दफा एक ही नजर में ऊपर से नीचे तक मुझे देख डाला। मै असहज हो गई। खुद को मन ही मन आंकने लगी। जींस, टी शर्ट पर जुडा और उसपे भी मास्क लगा रखा था..वैसे भी खूबसूरत दिखने जैसा मुझ में कुछ है नहीं..सफर के दौरान तो और पागल बन जाती हूं.. एक दो घंटे का सफर कर ही चुकी थी हालत बुरी थी.. क्या ही लग रही होऊंगी मै.. मन यही अटका पड़ा था। अब यूं हुआ वो देख रहे है मै खिड़की की ओर देख रही हूं उनकी नजर अभी भी मुझ पर थी और मेरी खिड़की पर ….दिल हुआ गड्ढा खोद के उसमे ही समा जाऊं…माहौल तनावपूर्ण हो गया।

जुग जुग जिए उनका सैमसंग का फोन जो बज उठा और दूतो नहाए पूतो फले वो शख्स जिसने फोन किया… और अब मैने चैन की सांस ली। ना हाय ना हलो सीधा हां…नहीं.. हा..वो अभियुक्त.. बाहर ही हूं ठीक। बस हो गया…

कट गया फोन …ये था क्या ऐसे कौन बात करता. इससे ज्यादा हलों तो मै कम्पनी वालों को बोल देती हूं…. मै उन्हें ही देखने लगी अब वो खिड़की की ओर देखने लगे। फिर अचानक उठ के चले गए। अब मै डरी। बगल वाला मनुष्य भी बड़ा अजीब था उसके हाथ पांव अपने आप ही इधर उधर होने लगे। मै खिड़की को सट गई। वाशरूम की ओर ढूंढने लगी कोई एक भी क्यों नहीं आ रहे ..गए कहां? पापा लौट आएं राहत हुई लेकिन सुकून उनके लौटने पर ही मिला। अब मै सीट पर पहले की ही तरह बैठ गई अबकी बगल वाला सिमट गया।

सफ़र के दौरान मैंने अनगिनत बार फोन देखा ..मगर वो आदमी खिड़की से पापा और पापा से मुझे देखता हुआ सफ़र काट गया..मेरे बोगी पे तीसरी जो सहयात्री थी वो एक महिला थी। उसकी छोटी सी बेटी भी साथ में थी। जो समोसे की रट लगाए थी मेरी नजर हर दूसरी दफे उस बच्ची पे पड़ जाती यहां तक पापा भी उसे देख मुस्कुरा रहे थे लेकिन मजाल है कि ये आदमी उधर मुंह कर ले…तभी पापा मोदी सरकार की उपलब्धियां गिनाने लगे। उन्हें फेवरेट टॉपिक मिला। बात राजनाथ सिंह से शुरू हुई। गजब के भक्त निकले दोनों जन..मतलब अमित शाह इस दौरान होते तो पक्का इन्हे पार्टी में न्योत के जाते। अब बात नितिन गड़करी की। “अरे सड़कों की सूरत बदल गई अब तो… एक्सप्रेस वे तो देखो.. फलाना धिमकाना…” मै विपक्ष की तरह ही बैठी सुन रही थी लेकिन उस औरत से न सुना गया। वो बोल पड़ी “काहे की सड़क हमारे छपरा में जाई के देखव तनिक …गुर्दा मुंह मा धस जावे।” वो औरत बिहारी थी जिसकी शादी यूपी में हुई थी। अंदर का बिहार रह रह बाहर आ जाता था। मुझे मजा आ गया कि अब क्या होगा। वो खिड़की से उस औरत की ओर पलट गए और कमर में बंधी बंदूक पर हाथ फेरते बोले “सुनो इधर ….तुम्हारे छपरा कई बार गया हूं कौन सी सड़क पर गुर्दा मुंह में धंसता तुम्हारे? कब गई थी वहां आखिरी बार? “अरे भईया मैंका हई.. हमारे बियाह से पहले गए रहन..”तो अब जाओ और देखो कुछ भी मत बोलो” बस चुप ! सन्नाटा हो गया!

अरे यार इतना सा बस…नहीं मज़ा नहीं आया और लड़ो सफ़र लंबा हैं। मै मन मार के रह गई। माहौल गंभीर हो गया जिसको हलका करने के लिए बगल वाला किलकारी मार के हंसने लगा। पापा ने भी साथ दिया और मैने भी खीस निपोड़ दी। वही इक दफा मैंने मास्क हटाया और खिखियाई पूरे बत्तीस दांत चमक उठे। वही इक दफा मेरा चेहरा उन्होंने देखा भी बाकी टाइम तो बस आंखे दिख रही थी। लेकिन वो हंसे मुझे देखकर या इसी बात पर लेकिन माहौल शांत हो गया। पापा ने कहा उस बच्ची से ” ट्रेन में नहीं मिलेगा बेटा समोसा अभी रुकेगी ट्रेन तो खाना। ” और बस इतना कह सो गए । मुझे सफर के दौरान कभी मंजिल की जल्दी नहीं होती इस बार तो आए न मंजिल दिल यही रट लगाए था।

ट्रेन निहालगढ़ जंक्शन पर पहुंचने लगी। उन्होंने पापा को उठाया अंकल आ गया स्टेशन..सच कहूं मुझे नहीं पता था कि यहां उतरना है क्योंकि बस से गांव का सफ़र ज्यादा किया था। मगर वो जानते थे। वो ही नहीं उनका पूरा परिवार इस वाकये के बाद भी उनके बड़े पापा और बड़े भाई हमारे गांव वाले घर गए थे।

खैर अभी की बात…उन्हें आगे जाना था और हमको उन्हें छोड़ के उतरना था। “हां हां..पापा उठ गए ट्रेन धीमी होने लगी। पापा बैग उतारने लगे अब मुझे पेपर की फ़िक्र हुई जो देने मैं आई थी.. मैंने उन्हें देखा पापा के खड़े होते ही एक सभ्य व्यक्तित्व का परिचय देते हुए उठ खड़े हुए। ट्रेन अब भी चल रही थी ये थमेगी तो ही उठूंगी.. मै बैठी रही। दोनों लोग सामने खड़े। रुक गई रेलगाड़ी। “चलो ” पापा की आगे से आवाज़ आई। मै उठ गई। उन्होंने मुझे जाने का रास्ता दिया। मैंने बिना देखते हुए उनके आगे निकल गई। मुझे लगा वो वापस बैठेंगे लेकिन वो मेरे पीछे आने लगे। मैंने महसूस किया कि मै दोनों लोगों के बीच में हूं वाह इतनी सेफ्टी वाह वाह… मै ट्रेन से उतर गई। वो दरवाजे पर रुक गए।

पापा ने कहा “ठीक बेटा बैठो तुम” वो नीचे उतर के पापा के पैर छूकर मेरी ओर मुड़े। पहली चीज जो उन्होंने पहली बार बोली “all the best” इसके बाद जो बोला वो पापा के मुंह से बचपन से सुनती आई थी। “जो आए वो पहले करो जो न आए छोड़ दो आखिर में वक्त मिले तो करना best of luck” उनका हो गया पर मेरे मुंह पर ताला जड़ा था अब सोचती हूं तो लगता है एक थप्पड़ लगाऊं खुदको। थैंक्यू तक न बोला मैंने बस सर हिला दिया और खूबसूरत सफ़र को बदसूरत अंजाम दे डाला। वो बस तक चलना चाहते थे औपचारिकता के लिए न कि मेरे लिए। पापा ने मना किया और वो दरवाजे पर ही रह गए। “ठीक?” .. “हां ठीक!”… और इस ठीक के साथ सफ़र ठीक से ख़तम हुआ।

पेपर देकर मै लौट आईं और मासूमियत तो देखो मेरी वापसी में भी ढूंढ़ रही थी उन्हें जैसे वो मेरे ही खातिर ट्रेन में बैठे होंगे।

घर आई सफ़र से लेकर पेपर तक सब मम्मी के सामने उगल दिया। हां सफ़र की बात पर बार बार उन्ही की बात छेड़ देती मै..मम्मी देखती रहीं। फिर बोली “शादी करोगी ” ? मेरे मुंह से कुछ निकला नहीं सिवाय इसके “वो करेंगे?” “क्यों नहीं परिवार में जान पहचान है इलाहाबाद (प्रयागराज) में थी साथ जब तुम पैदा हुई गोद में भी लिया है तुमको उनकी मां ने” क्या मेरी हो सकने वाली सांस ने मुझे गोद लिया था हंसी न रुकी मेरी। तभी मां ने मेरी हंसी पर ब्रेक लगा दिया। “उसकी हो गई होगी शायद शादी चलो पापा को भेजेंगे वहां”

शादी…”अरे ये मैंने सोचा ही नहीं..नौकरी है तो छोकरी तो होगी ही..लेकिन मन का एक कोना चीख रहा था ” ना बबुआ ना कुंवारे है अगर ब्याहे होते ढाई घंटे बिना मेहरारू के फोन के थोड़े बैठते” मैंने भी सोचा चलो देखते है..हमेशा किस्मत हमको आजमाई है आज हम उसको आजमाएंगे। इस बात को लंबा समय हो गया। मां ने पता नहीं कब और कैसे पापा को ये कहा होगा पता नहीं चला। फ़रवरी महीने में ठंड कम देख पापा ने बैग पैक किया और गांव को निकल गए। मां ने हाथ जोड़ लिए। “जिस काम को जा रहे प्रभु सफल करें” मै समझ गई। वो दिन गुजर गया। दूसरे दिन जो खबर मिली दिल खुश कम बैठ ज्यादा गया। अपडेट करेंगे आगे…

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